Saturday, December 12, 2009
खादी का नया अर्थशास्त्र
खादी खास हो गई है। वह महीन से महीन होकर महंगी और आकर्षक होकर फैशन परेड तक में शामिल हो गई है। इस तरह से उसने आत्मनिर्भरता का एक नया अर्थशास्त्र गढ़ा है। एक उत्पाद की दरकार व्यापक बाजार तलाशने, मांग के मौके बढ़ाने और फिर पूर्ति के रूप में अपने को खपा देने की होती है। इस अर्थ में खादी की उपलब्धि पर संतोष के साथ देश गर्वित भी हो सकता है। आजादी से पहले बापू के आह्वान पर ‘भूखे-नंगे भारत’ का अपनी खरखराहट से ही तन ढंकने आगे आई खादी का मकसद और सरोकार आम था। उसके महंगेपन में आज ‘वस्त्र नहीं विचार’ की बुनियाद कहीं कमजोर पड़ती दिख रही है। सस्ती दर पर सर्वजन सुलभता के जरिए गांधी ने तब वर्गभेद का दुर्गभेदन कर दिया था लेकिन अब खादी यहां से खिसक गई है और उसने अपने दाम बाजार से भी ऊंचे रखे हैं। मौजूदा महंगाई की मार में पिस रही जनता के लिए वहां से राहत की कोई उम्मीद नहीं है। एक तरफ सरकार सस्ती दरों पर रोजमर्रा की आवश्यकताएं जुटाने में हलकान हो रही है तो खादी का इसमें असहयोगी रवैया आड़े ही आ रहा है। उससे आटा-दाल खरीदने वालों को वाकई आटा-दाल के भाव याद आ रहे हैं। कोई भी सामान खरीदने जाइए, वह खादी ग्रामोघोग भवन की मुहर लगने भर से आसमान छूने लगा है। लोगों को लगता है कि यह बापू के सपने का टूटना है क्योंकि खराब समय में आम आदमी के साथ खड़े होने का उसका मिशन नहीं रहा। उसकी मुहर धनाढ्यों की हैसियत की रैंकिंग तय करती लगती है, जिनके लिए दौलत की कभी कमी नहीं रही। यह विडम्बना है कि जिस खादी ने वर्गविहीन बाजार रचने का ऐतिहासिक दायित्व निभाया था, उसने ‘क्लास’ पैदा कर दिया है। यह बात उसकी दुकानों पर जा रहे लोगों से जाहिर होती है। तब जबकि उसका माल तैयार करने में आज मशीनी नहीं, मानव श्रम लगता है जो अब भी काफी सस्ता है। देखा जाए तो उसके बाजार के क्लासिक होने का फायदा सूत कातने या बुनने वालों को नहीं पहुंचा है। सरकार खादी ग्रामोघोग को एक निश्चित राशि सब्सिडी के रूप में देती है। इसके बावजूद वह महंगी बनी हुई है तो उन कारणों की छानबीन की जानी चाहिए। खादी के विदेशों तक में पांव जमाने से हो रहे मुनाफे के बरअक्स घरेलू स्तर पर उसकी महंगे होने में वाकई कोई संगति है भी। यह काम इसलिए भी जरूरी है कि उस तक आम आदमी की पहुंच बनी रहनी चाहिए।
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आप ने बहुत ही विचारणीय पोस्ट लिखी है।
ReplyDeleteनिश्चित ही विचारणीय पोस्ट!!
ReplyDeleteआपने खादी के क्षेत्र में अपना विचार रखा, यहाँ कव... आपने खादी के क्षेत्र में अपना विचार रखा, यहाँ कविले तारीफ है. खादी का शोधार्थी होने के नाते आपका ध्यान खादी- विचार के दुसरे आयामों पर भी दिलाना चाहता हूँ. आपने लिखा की गाँधी ने 'भूके-नंगे भारत ' के तन दकाने के लिए खादी की प्राथमिकता दी, उसे सस्ता बनाने का आह्वान किया; वह आज नहीं हो रहा है- यह सत्य है, किन्तु आपको मालूम ही है कि तब बहुताय स्वतंत्रता सेनानी सूत की कताई कर दान करते थे; यहाँ तक की नेहरूजी, डॉ. राजेंद्र प्रसाद आदि जैसे व्यस्त नेता भी जिससे कतिनों- बुनकरों पर महंगाई कर मार नहीं पड़ता था. उन्हें आधिक से अधिक मजदूरी देने की कोशिश की जाती थी . तब भी महंगा मिलता था आज भी मिलता है. मानव श्रम महंगा होता ही है. सरकार की ज़िम्मेदारी है कि उसे सब्सिडी दे या दूसरा कोई मशीनी काम दे. आजादी के इतने दिनों बाद सभी को सामान्य काम नहीं मिला, तो वर्तमान में कार्यरत १०००००(दस लाख) कतिनों - बुनकरों को क्या रोजगार मिलेगा ?
ReplyDeleteखादी प्रारंभ से ही महंगा है, अंतर इतना है कि तब लोग मिल का कपड़ा पहनना पाप समझते थे और खादी पहनना अपना धर्म मानते थे. सरकारी कार्यालयों में खादी का प्रयोग होता था, आज सरकारी बाबुओं को मिल के कपड़े पर कमिसन मिलता है, तो खादी को निकल बहार किये. खादी के योजना बनाने वाले और खादी आयोग वाले ही खादी नहीं पहनते हैं तब क्या खादी पहनना हमारा तब तक धर्म नहीं है जब तक इन निरक्षर कतीन-बुनकरों को रोजगार नहीं मिल जाता, चाहे वह महंगा ही क्यों न हो ....
पंकज कुमार सिंह
खादी जो विचार के बदौलत आजादी के समय पनपा वह अब व्यपार के कारण तेजी से सिमट रहा है।
ReplyDeleteजहां विचार के कारन बुनकरों और कतिनों को लाभ हो रहा था वहीं व्यपार के कारन व्यपारियों को
लाभ मील रहा है। गौरतलब है कि खादी हमेसा से महंगा रहा है और आगे भी रहेगा क्योंकि यह
'मानवश्रम और जीविका' को केन्द्र में रख कर उत्पादन करता है न की 'मशीन और मुनाफा' को
केन्द्र में रख कर।
यदि हम खादी अपनाते हैं तो किसी मानव को जीविका देते हैं,जो मानव इस
बेरोजगारी के मातम में मर ही जाएगा, दूसरे उस निरक्षर(कतीन-बुनकर)के पास कोई जमीन भी नहीं
है कि खेती कर सके। यदि हम चाहते हैं कि वे भी जीवित रहें तो खादी
पहने या उन्हें दूसरा रोजगार दें।